# आज पहले से ज्यादा तुलसी एवं उनकी रचनाओं पर बात करने की आवश्यकता है : गोपाल प्रसाद
बोकारो : रविवार को वरिष्ठ कवि, गीतकार, संपादक, सूर्पनखा जैसे खंड काव्य के रचयिता एवं जनवादी लेखक संघ, झारखण्ड के पूर्व राज्य सचिव गोपाल प्रसाद ने तेलीडीह स्थित एन जे एम प्ले स्कूल में तुलसी जयंती समारोह का आयोजन किया, जिसकी अध्यक्षता की ख्यातिप्राप्त कथाकार पी सी दास ने और संचालन का दायित्व निभाया वरिष्ठ कवि डा. परमेश्वर भारती ने। विशिष्ट अतिथि के रूप में मंच पर उपस्थित थे हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार एवं रणविजय स्मारक महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य डा. सत्यदेव तिवारी।
महाकवि तुलसी दास के चित्र पर माल्यार्पण एवं पुष्पार्पण के बाद गोपाल प्रसाद ने अपने प्रस्तावना में कहा कि यद्यपि वे पिछले 3 दशकों से लेखन एवं लेखक संगठनों से जुड़े रहे हैं, तुलसी जयंती पर कार्यक्रम का आयोजन पहली बार कर रहे हैं। इसके पीछे छिपे कारण का रहस्योद्घाटन करते हुए उन्होंने कहा कि आज शायद पहले से ज्यादा तुलसी एवं उनकी रचनाओं पर बात करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि वे देश के संविधान को पूरा सम्मान देते हैं। इसके अनुसार हम जाति, संप्रदाय, धर्म, भाषा, क्षेत्र या लिंग आदि के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं कर सकते हैं।
किन्तु, आज का पूरा परिदृश्य बड़ा ही भयावह है। एक तरफ मणिपुर में हमारी बहनों व बेटियों को सरेआम नग्न कर जुलूस निकाला जा रहा है तो दूसरी तरफ एक गरीब आदिवासी के ऊपर दिन दहाड़े पेशाब किया जा रहा है। इस स्थिति ने मुझे तुलसी जयंती मनाने के लिए बाध्य कर दिया। उन्होंने कहा कि तुलसी दास ने केवल रामचरितमानस की ही रचना नहीं की है, बल्कि विनय पत्रिका तथा हनुमान बाहुक भी उन्हीं की रचनाएँ हैं। मानस से हनुमान बाहुक तक की यात्रा उनके अंदर आए बदलावों की यात्रा है।
अपने उद्बोधन में डा. सत्यदेव तिवारी ने कहा कि गोस्वामी तुलसीदास जी एक महान कवि एवं सामाजिक चिंतक थे। लगभग 526 वर्षों के बाद भी उनकी रचनाओं में अभिव्यक्त विचार हमारी चेतना और भावना को उद्वेलित करते हैं। उनके उन्हीं उदात्त विचारों ने गोपाल प्रसाद जी को उन्हें याद करने के लिए बाध्य कर दिया। गोपाल प्रसाद जी के साहित्य के प्रति अनुराग का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि उनकी विद्वता के अनुरूप उन्हें सम्मान नहीं मिला है। यदि वे हमारे साथ होते तो आज साहित्याकाश में मार्तंड की तरह रौशनी बिखेर रहे होते। साहित्यिक ढोंगियों व पाखंडियों द्वारा पैदा किये गए विवाद के कारण हमारे सद्ग्रन्थों की गरिमा धूमिल हुई है।
तुलसी का समय बड़ा ही अत्याचार और अन्याय का समय था। मुगलों का शासन था। समाज की एकता छिन्न भिन्न थी। चारों ओर अराजकता फैली हुई थी। साहित्य को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि साहित्य विज्ञान, तर्क और यथार्थ का सत्य नहीं है। वह भावनाओं एवं कल्पनाओं का सत्य है। उन्होंने कहा कि किसी की भी जयंती की सार्थकता उसकी प्रासंगिकता में ही है। मानव मूल्य सदा एक सा ही रहते हैं। वे नहीं बदलते। उन्होंने कहा कि तुलसी समन्वय के प्रस्तोता थे। उनकी साहित्य अपनी समग्रता में स्वीकार योग्य न भी हो तो भी उसका अधिकांश ग्राह्य योग्य है।
अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में पी सी दास ने रक्ष और यक्ष संस्कृति को परिभाषित करते हुए कहा कि तार्किक विवेचना करनेवाले लोग राम – रावण युद्ध को दो राजाओं के बीच युद्ध नहीं मानते हैं, बल्कि दो संस्कृतियों के बीच लड़ाई मानते हैं। आजकल लोग सिर्फ भक्तिभाव से धार्मिक ग्रंथों को नहीं पढ़ते, बल्कि उनकी दृष्टि आलोचनात्मक होती है। वे उसका गंभीर विश्लेषण करते हैं और ऐसा कर उसके निहितार्थों तक पहुंचने की कोशिश करते हैं।
भक्तिभाव में व्यक्ति अपने प्रभु के चरणों में पूरी तरह बिछ जाता है। वह उसी के रंग में रंगा जाता है। आज भी लोग अपने शासक के भक्तिभाव में विभोर होकर सारी परेशानियों को झेलते रहते हैं। सारे अन्याय एवं अत्याचार को सहते हुए भी अपने मालिक के भक्तिभाव में डूबे रहते हैं।
चर्चा में कुमार सत्येन्द्र, एच एल अलकहा , गीता कुमारी, शैलेन्द्र कुमार , सुधा देवी, दयानंद सिंह, नवल किशोर शर्मा, ललन तिवारी, वेंकटेश शर्मा, नागेश्वर महतो आदि ने भी भाग लिया।
इस अवसर पर गिरधारी गोस्वामी, शांति भारत, एस एन कुमार, जी सी शर्मा, श्याम सुंदर केवट रवि, अजय यतीश, संजय कुमार आदि उपस्थित थे।