मैं रावण, ब्रह्म देव का वंशज ऋषि परिवार तथा ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ। मैं मानता हूं कि मुझ में बहुत सारी बुराइयां थी जिनसे मुझे परहेज करना चाहिए जैसे मुझे घमंड था अपने ज्ञान,तप,बल और शक्तियों पर, मुझे अति आत्मविश्वास था अपने बाहुबल पर, मैं अति महत्वाकांक्षी और परम स्वार्थी स्वार्थ था इसी कारण मेरी विवेक शक्ति धूमिल हो गई, मैं हमेशा सिद्धि देखता था तथा साधनों की पवित्रता की निरंतर अनदेखी करता रहा। मैंने अपनी व्यक्तिगत एषणाओं की पूर्ति में अपने कुल की यश किर्ति, परिवार और अपने प्रिय पुत्रों तक का बलिदान कर दिया। अपने भाई से स्वर्ण नगरी और पुष्पक विमान तक छीन लिया था।मेरी तप और साधना के मूल में भी स्वार्थ और दंभ के पोषण की ललक रही।
मैंने ज्ञान और शक्ति के अहंकार में नवग्रहों को भी बंदी बनाकर रखने की भूल की। मैं विरोधी/दुश्मन बन गया मानव जाति का, ऋषि- मुनियों का,यज्ञ यादि कर्मो का क्योंकि मुझे डर था कोई और मानव मेरा जैसा शक्ति-सम्पन्न बन कर मुझे चुनौती देने का साहस न करने लग जाए।
हां मुझे अच्छा लगता था अपने पराक्रम और साहस की प्रशंसा सुनना, और मुझे पीड़ा देता था मेरे सामने किसी और की प्रशंसा करना। हां मैं मानता हूं कि मैंने अपनी बहन शूर्पणखा के कहने पर श्रीराम की पत्नी के सौंदर्य को देखने का प्रयास किया, किन्तु उनके स्वरूप को देखकर उस पर मोहित होना मेरे बस में नहीं था क्योंकि देवी सीता का रूप ही इतना सुंदर था। हां मैं मानता हूं कि मैंने अपने बहन के अपमान का बदला लेने के निमित्त व्याहता स्त्री , श्रीराम की पत्नी का अपहरण करने का पाप किया, उसे अपनी रानी बनाने की कामना की, सीता मेरी रानी बनना स्वीकार कर लें इसके लिए मैंने उन्हें डराने, धमकाने, यातना देना का प्रयास किया। किन्तु मानव को एक बात अवश्य समझना चाहिए कि सर्व शक्ति सम्पन्न होने के बाबजूद भी मैंने उनके साथ ज़ोर- जबरदस्ती नहीं की,आज के समय के मानव द्वारा किए जा रहे दुष्कर्म -बलात्कार का सहारा नहीं लिया ,न ही कभी उनकी हत्या का प्रयास किए,न ही उनके स्वरूप को एसिड आदि के माध्यम से कुरुप बनाने का कोशिश की। मैंने आज के मानव की तरह कभी किसी पर पीछे से घात भी नहीं किया। मैंने कभी भी अंधविश्वास और अवैज्ञानिकता का प्रचार नहीं किया।
मुझे मालूम था विभीषण की बेटी त्रिजटा माता सीता की देखरेख में है,वो उनकी सहायता करती है, उसे राज्य के अंदर की जानकारी देती है फिर भी कभी उसे हटाने का प्रयास नहीं किया। मुझे मालूम था श्री हनुमान श्रीराम के विजय अनुष्ठान के लिए मुझसे पूजन करवाने का अनुरोध कर रहे हैं फिर भी मैंने पुरोहित दायित्व को निभाने से मना नहीं किया। मुझमें और भी कई गुण और मानव समाज के अनुकरण योग्य विशेषताएँ थी – मुझे गर्व था अपने परिवार के सदस्यों की एकता,शक्ति और अस्त्र-शस्त्र के कौशल युक्त ज्ञान पर, मेरे प्रति सम्मान और समर्पण पर। मुझे अटूट विश्वास था अपने इष्टदेव महादेव पर। मैं ज्योतिष, तंत्रविद्या, वेदों और शास्त्रों के साथ कई कलाओं का परम ज्ञानी भी था। इन्हीं के दम पर मैंने परम प्रतापी, सर्व गुण सम्पन्न, सर्व शक्तिमान, सभी अस्त्र-शस्त्र के ज्ञाता मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम से जानबूझ कर अपने कुल की मोक्ष प्राप्ति हेतु युद्ध करने का साहस किया।
मेरी(रावण) दृष्टि में आज का मानव मेरी राक्षसी वृतियों से भी आगे निकल गया है तभी तो वह बलात्कार, कुकृत्यों , हत्या , अपहरण तथा कष्टदाई यातनाएं देने के लिए सुकुमारी बालिकाओं, कुंवारी युवतियों,व्याहता नारी से लेकर विक्षिप्त और वृद्ध महिलाओं तक को नहीं छोड़ रहा है,न ही उसे अपने धर्म,समाज और राष्ट्र के विरुद्ध अपराधिक कृत्यों को अंजाम देने में किसी प्रकार की शर्म और अपराध बोध का एहसास हो रहा है।
मैं रावण इसे विडम्बना ही कहूंगा कि दशहरा पर आज का मानव श्रीराम और मेरे अच्छे गुणों को अपनाने तथा मेरी राक्षसी प्रवृत्तियों को त्यागने, उनमें कमी लाने के स्थान पर ,सारा ध्यान मेरी बुराइयों को मात देने में लगा रहा है, अपराध और दुष्कर्म के नये नये तरीके खोज रहा है।उसे न तो अपने परिवार की चिंता है न ही देश की मान मर्यादा की।वो तो बस समय के साथ-साथ मेरे पुतले की लंबाई बढ़ाने में लगा हुआ है। तभी तो वह कभी मेरा 95 फुट ऊंचा (देहरादून, 2021में), कभी 125 फुट ऊंचा(अंबाला,2022 में), कभी 171 फुट ऊंचा (पंचकूला,2023 में),कभी 210 फुट ऊंचा ( पंचकुला में,2018), कभी 211फुट ऊंचा(दिल्ली के रामलीला मैदान में संभावित,2024), 221 फुट ऊंचा ( धनास,2019) पुतले दहन को अपनी शान समझता है। ऐसा लगता है मनुष्य ने देश में बढ़ती अपराधिक, राक्षसी प्रवृत्तियों के कारण मेरी (रावण) मूल लंबाई 18 फुट (वाल्मीकि रामायण के अनुसार) को भी पुतले दहन में ध्यान रखना उचित नहीं समझा। जबकि 1970 तक रावण के पुतले की लंबाई 12 फुट तक रखी जाती थी।
अतः मैं रावण, मनुष्य से यही कहना चाहता हूं कि दशहरे पर मेरे पुतले का दहन ज़रूर करें, साथ ही यह सपथ भी ले कि जो बुराइयां मेरे में थी उसका भी दहन करेगा,जो गलतियां मैंने की उन्हें नहीं दोहरायेगा।मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के गुणों को जीवन में उतारने का संकल्प के साथ प्रयास अवश्य करेगा। मनुष्य को एक बार चिंतन अवश्य करना चाहिये कि क्या आज का कोई भी मानव मेरी तरह विद्वान है? शक्तिशाली है? अपने ईष्ट की भक्ति और तप करने में समर्थ है?परिवार और कुटुम्ब के प्रति समर्पित है? धैर्यवान और साहासी है? देश भक्त है?
अतः मैं रावण आज के मानव से यही अनुरोध करना चाहता हूं कि मेरी बुराइयों का दहन करें,मेरी अच्छाईयों का नहीं।दहन के लिए मेरे पुतले के कद को बढ़ाने के स्थान भारत से अपराधिक और राक्षसी प्रवृतियों को समाप्त करने पर ध्यान केंद्रित करे। तभी सही अर्थों में दशहरे का आयोजन और मेरे पुतले का दहन सार्थक होगा।
(लेखक: डा मनमोहन प्रकाश, स्वतंत्र पत्रकार)