सुप्रीम कोर्ट ने वक्फ (संशोधन) अधिनियम 2025 पर सुनवाई टाली, धार्मिक अधिकारों और परंपराओं पर उठे अहम सवाल

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को वक्फ (संशोधन) अधिनियम 2025 की संवैधानिक वैधता को लेकर चल रही सुनवाई को गुरुवार तक के लिए टाल दिया। अदालत ने अभी तक कोई अंतरिम आदेश पारित नहीं किया है।

मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली पीठ, जिसमें जस्टिस संजय कुमार और के.वी. विश्वनाथन भी शामिल थे, ने सुनवाई के दौरान पश्चिम बंगाल में संशोधित कानून को लेकर हुई कथित हिंसा पर चिंता जताई।

सुनवाई के दौरान अदालत ने केंद्र सरकार से यह अहम सवाल किया कि क्या अब मुस्लिम समुदाय के लोगों को भी हिंदू धार्मिक न्यासों में शामिल होने की अनुमति दी जाएगी? अदालत ने यह सवाल वक्फ कानून में किए गए संशोधनों के आलोक में उठाया।

एक बड़ा मुद्दा “यूज़र के आधार पर वक्फ” की अवधारणा को हटाने का भी रहा। यह वह पुरानी परंपरा है जिसके तहत किसी धार्मिक स्थान को लंबे समय से इस्तेमाल के आधार पर वक्फ संपत्ति माना जाता था, भले ही उसके पास कोई लिखित दस्तावेज़ न हो। अदालत ने चेतावनी दी कि इस परंपरा को समाप्त करने से गंभीर कानूनी जटिलताएं पैदा हो सकती हैं।

पीठ ने सवाल किया, “ऐसे वक्फ अब कैसे पंजीकृत होंगे? उनके पास कौन से दस्तावेज़ होंगे? यह ऐतिहासिक मान्यताओं को पलटने जैसा हो सकता है।” अदालत ने यह भी माना कि गलत इस्तेमाल की कुछ घटनाएं हो सकती हैं, लेकिन इस सिद्धांत को लंबे समय से मान्यता प्राप्त है।

केंद्र सरकार की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलील दी कि मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा तबका वक्फ अधिनियम के तहत शासित नहीं होना चाहता। इस पर अदालत ने पूछा कि अगर ऐसा है, तो क्या सरकार अब मुस्लिमों को हिंदू धार्मिक न्यासों में भी भागीदारी देगी?

वहीं याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी और हुज़ेफ़ा अहमदी ने संशोधित कानून का विरोध किया। उन्होंने कहा कि यह कानून वक्फ बनाने को सिर्फ मुस्लिमों तक सीमित कर देता है और इसमें धार्मिक प्रथा साबित करने के लिए पांच साल की अवधि का प्रमाण मांगा जा रहा है, जो अनुचित है।

सिब्बल ने राज्य को धार्मिक पहचान परिभाषित करने का अधिकार देने पर सवाल उठाया, जबकि अहमदी ने “यूज़र के आधार पर वक्फ” को एक गहरी धार्मिक परंपरा बताया जिसे हटाया नहीं जा सकता। सिंघवी ने आग्रह किया कि यह मामला राष्ट्रीय महत्व का है और इसे सुप्रीम कोर्ट को ही सुनना चाहिए, न कि किसी हाई कोर्ट को भेजा जाना चाहिए।

सुनवाई के अंत में, चीफ जस्टिस खन्ना ने दोनों पक्षों से कहा कि वे यह स्पष्ट करें कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट में ही रहना चाहिए या किसी उच्च न्यायालय को स्थानांतरित किया जाना चाहिए। साथ ही, वे अपनी दलीलों का सार लिखित रूप में पेश करें।

सीजेआई ने कहा, “हम चाहते हैं कि दोनों पक्ष दो बातों पर स्पष्ट राय दें—पहला, क्या यह मामला हमारे पास ही रहना चाहिए या हाई कोर्ट भेजा जाए? दूसरा, आप क्या दलील देना चाहते हैं, उसे संक्षेप में बताएं।”

गौरतलब है कि इस संशोधित कानून को चुनौती देने वाली 70 से अधिक याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं। इनमें AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB), जमीयत उलमा-ए-हिंद, DMK और कई कांग्रेस सांसद शामिल हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *