झारखण्ड की नदियाँ एवं पर्यावरण : बचाने के लिए सामूहिक और सजीव प्रयासों का वक्त

– डॉ  रामचंद्र कुमार

किसी भी प्रदेश कि नदियाँ केवल एक जलस्त्रोत मात्र नहीं होती बल्कि सतह के निर्माण और परिवर्तन से जुड़ी एक महत्वपूर्ण भू-आकृतिक प्रक्रम भी है. नदी अपने प्रवाह मार्ग में मिट्टी, चट्टानों, और अन्य अवसादों को काटती और बहा ले जाती है, जिससे घाटियाँ, जलप्रपात, क्षिप्रिकाएं  जैसी भू-आकृतियाँ बनती हैं. नदी द्वारा लाए गए अवसादों के संचय से निचले इलाकों में मैदानों और डेल्टा का निर्माण होता  है, जो जैव-विविधता एवं कृषि के लिए उर्वर भूमि प्रदान करता है. साथ ही, नदियों का निरंतर प्रवाह भूमिगत जलस्तर को भी पुनर्भरित करता है और जलचक्र को संतुलित बनाए रखता है.  नदियाँ प्राकृतिक पर्यावास के साथ –साथ मानवीय पर्यावास के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. ये न  केवल पेयजल और सिंचाई के स्रोत के रूप में कार्य करती हैं, बल्कि कृषि, उद्योग और ऊर्जा उत्पादन में भी योगदान देती हैं. इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं की नदियाँ मानव सभ्यता एवं संस्कृति की जननी एवं पोषक है. झारखण्ड जैसे राज्यों में जहाँ की जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा  गांवों, पहाड़ी क्षेत्रों, पठारी भागों में रहता है, अपनी जीवन-यापन के लिए सीधे तौर पर नदियों एवं इसके प्राकृतिक क्षेत्र पर निर्भर हैं.  नदियाँ जैव विविधता का संरक्षण, पुनर्जनन, भूजल पुनर्भरण, तापमान नियंत्रण कर  पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती  हैं. अर्थात नदियाँ एक ओर जहाँ  प्राकृतिक संसाधनों का सतत् विकास सुनिश्चित करती हैं तो वहीँ सतत मानवीय जीवन का आधार तैयार करती हैं.

भौगोलिक दृष्टिकोण में झारखण्ड राज्य भारत के उन महत्वपूर्ण राज्यों में एक है जो अपनी अनुपम प्राकृतिक विशेषताओं के लिए प्रसिद्ध है. एक नए राज्य के निर्माण के विभिन्न आधारों में सबसे महत्वपूर्ण आधार यह भी था कि भौगोलिक दृष्टि  से प्रकृति ने इस राज्य की रचना बिहार से भिन्न  की है. वन्नाछादित भूमि, कई छोटी-बड़ी पहाड़ियों से युक्त पठारी क्षेत्र, सुंदर जलप्रपातों का निर्माण करने वाली नदियाँ, प्राकृतिक जलाशय, भूमि के गर्भ में संचयित बहुमूल्य खनिज संसाधनों का भंडार आदि, जिससे न सिर्फ विशेष प्राकृतिक पर्यावास बल्कि विशेष मानव पर्यावास को भी सृजित किया. इन प्राकृतिक विशेषताओं से युक्त इस भौगोलिक क्षेत्र की सबसे बड़ी विडंबना यह है  कि मानव विकास के नवीन आर्थिक प्रतिमानों ने जो उद्योगों पर आधारित हैं का एक आकर्षक भू-भाग बन कर रह गया. उद्योगों एवं कथित मानवीय विकास की आवश्यकताओं की पूर्ति इस क्षेत्र की  प्राकृतिक प्रचुरता को नष्ट करने के कीमत पर भी जारी है जिसका परिणाम यह है कि यहाँ की नदियाँ अवनयन के खतरनाक स्तर से गुजर रही है. मानवजनित प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों, अनियंत्रित खनन, औद्योगिकीकरण एवं नगरीकरण  के कारण नदियों का स्वास्थ्य खतरे में पड़ गया है.

झारखंड की नदियों को प्रवाह की दिशा के अनुसार दो भागों में बाँटा गया है: उतरवर्ती और दक्षिणवर्ती नदियाँ. उतरवर्ती नदियाँ वे हैं जो पठारी क्षेत्रों से निकलकर उत्तर की ओर बहती हुई गंगा में मिलती हैं जैसे-  सोन, उत्तरी कोयल, पुनपुन, फल्गु, सकरी, चानन आदि. दूसरी ओर, दक्षिणवर्ती नदियाँ वे हैं जो पठार के दक्षिणी भाग से निकलकर दक्षिण या पूर्व दिशा की ओर बहती हैं. इनमें दामोदर, स्वर्णरेखा, बराकर, दक्षिणी कोयल, शंख, अजय, मोर/मयूराक्षी, ब्राह्मणी, गुमानी और बंसललोई प्रमुख हैं। ये नदियाँ मुख्यतः बरसाती हैं, इसके बावजूद पहले इन नदियों में पानी का बहाव वर्ष भर होता रहता था किंतु अब ऐसा नहीं होता. अब अधिकांश नदियाँ वर्षा काल के बाद सूखने लगती हैं और गर्मी आते-आते प्रायः सुख जाती हैं. दामोदर, सुवर्णरेखा, दक्षिणी कोयल, शंख, अजय, मोर/मयूराक्षी, ब्राह्मणी, गुमानी, बंसललोई आदि प्रमुख नदियों  की कई सहायक नदियाँ अब विलुप्त हो गई हैं और कुछ विलुप्तप्राय हैं. जैसे – रांची में नकटी नदी, ढोड नदी, पोटपोटो नदी, हरमू नदी. एक रिपोर्ट की माने तो धनबाद में कतरी, जमुनिया, गोबई, खुदिया और इजरी नदी  समेत लगभग 100 छोटी-बड़ी  नदियाँ  विलुप्त हो गई है या विलुप्त होने के कगार पर है. यही स्थिति झारखण्ड के हर जिलों में है. ग्रामीण क्षेत्रों में भी यही स्थिति है बड़े दुष्प्रभाव देखने को मिल रहें हैं. नदियों के सिकुड़ने या सुख जाने से कृषि, पशुपालन जैसी जीवन निर्वाहक आर्थिक क्रियाकलाप प्रभावित हुवा हैं वहीँ गर्मी के दिनों में पेयजल संकट भयावह हो जाता  है. इसके लिए सबसे बड़ा कारण है नदियों के प्राकृतिक क्षेत्र में मानवीय अतिक्रमण, दूसरा कारण है जनसँख्या में वृद्धि एवं अनियंत्रित शहरीकरण में तीव्रता, वहीँ प्रदुषण तीसरा सबसे बड़ा कारण खनन एवं औद्योगिक  गतिविधियाँ है.

झारखण्ड की नदियों के जल में प्रदुषण का स्तर, अपवाह क्षेत्र में अतिक्रमण एवं मानवीय दखल के प्रभावों पर लगातार अध्ययन होते रहें हैं जैसे -अमरकंटक से निकलने वाली सोन नदी, जो झारखण्ड समेत चार राज्यों की जीवन रेखा है, अतिक्रमण और प्रदूषण के कारण उद्गम स्थल पर ही दम तोड़ रही है. प्रो. एम. के. भटनागर ने एक शोध में बताया कि  पेपर मिल, चचाई थर्मल पावर प्लांट और बाणसागर से निकलने वाले प्रदूषित जल ने सोन नदी के भौतिक और रासायनिक गुणों को बदल दिया है. जल में टीडीएस, टर्बिडिटी और पीएच स्तर में बदलाव देखा गया है, जबकि अतिक्रमण और बाँध के कारण नदी की धार पतली होती जा रही है. इसी प्रकार उत्तरी कोयल नदी जो पलामू, लोहरदगा, गढ़वा आदि जिलों की लाइफ लाइन मानी जाती है कि एक सहायक नदी ‘दानरों’  पर प्रो. मजुमदार एवं अभिषेक ने अध्ययन किया.  नेचर में प्रकाशित हुई इस अध्ययन में इन्होने बताया कि मानसून में प्रदूषण का स्तर 27.15 पहुंचना, अत्यधिक प्रदुषण को दर्शाता है, वहीँ  भूजल में इन्होंने सीसा पाए जाने की पुष्टि की है। इसी प्रकार पटना विश्वविद्यालय के पर्यावरणविद डॉ पॉल ने अपने एक लेख में बताया है कि पुनपुन नदी में फीकल कॉलीफॉर्म की मात्रा चरम पर है, नदी का पानी अब नहाने योग्य नहीं रह गया है. वहीँ तिर्की एवं मिस्त्री ने  झारखंड राज्य की विभिन्न नदियों के जल की भौतिक और रासायनिक गुणों का परीक्षण किया , जिसमें  हरमु, स्वर्णरेखा, दामोदर (रामगढ़, धनबाद, बराकर, बोकारो) नदियों के जल की गुणवत्ता की जाँच की गई. जाँच में घुलित ऑक्सीजन 4.2 से 9.2 mg/l के बीच पाई गई, जबकि पानी में क्षारता 168 से 194 mg/l के बीच पाया गया। वहीँ प्रो. एस. के. गौतम एवं रावत ने अपने एक अध्ययन में बताया है कि सुबर्णरेखा नदी में नाइट्रोजन की सांद्रता बढ़ रही है एवं  शहर का  गंदा पानी एवं अवशिष्ट पदार्थों के कारण अब यह नदी कई स्थानों संकुचित हो गई  है. झारखण्ड कि सबसे बड़ी दामोदर नदी, जो आज के समय में  देश की पांच सबसे प्रदूषित नदियों में एक है. जिसमें औद्योगिक कचरे और रासायनिक अवशेषों की मात्रा खतरनाक स्तर तक पहुँच गई है. खनन कार्यों से उत्पन्न धूल और रसायन ने पानी  कि गुणवत्ता को ख़राब किया है वहीँ अवैध बालू उत्खनन से नदि के प्रवाह में रुकावट आई है, जिससे दामोदर नदी पारिस्थितिकी तंत्र बुरी तरह प्रभावित हुआ है।

नदियों और उनके प्राकृतिक पर्यावास को सुरक्षित रखने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें कई योजनाएँ चला रही हैं, जैसे ‘नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा’, वर्षा जल संचयन, जलाशय और चेकडैम निर्माण, वृक्षारोपण, और मनरेगा के तहत जल संरक्षण कार्य.  झारखंड राज्य जल नीति (2011) का भी उद्देश्य जल संसाधनों का सतत विकास और प्रबंधन है, ताकि नदियों के पारिस्थितिकी तंत्र और लोगों को अधिकतम लाभ मिल सके. हालांकि, उपयुक्त योजनाओं का निर्माण, योजनाओं के क्रियान्वयन में देरी, सामुदायिक भागीदारी की कमी, और पर्यावरण कानूनों की अनदेखी जैसी चुनौतियाँ बनी हुई हैं.  खनन गतिविधियों के चलते राज्य को पर्यावरण असंतुलन का सामना करना पड़ रहा है, जो विकास के वैकल्पिक मॉडल, जैसे इको-टूरिज्म, के विस्तार में बहुत बड़ी बाधा है. इस देश नदियों को बचाने का संघर्ष जितना आम लोगों एवं  सरकारों के द्वारा किया जा रहा उतना ही विनाश का भी, हम भुक्तभोगी और भागीदार दोनों है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए की नदियों का मिटना  केवल किसी जलस्त्रोत का मिटना मात्र नहीं है इसके साथ इसके प्राकृतिक क्षेत्र में बसे जीवों के संसार,  बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन, इन संसाधनों पर निर्भर मानव जीवन व्यवस्था एवं संस्कृतियाँ भी मिट जाती है. यह नदियों के बचाने के लिए सामूहिक और सजीव प्रयासों का वक्त है, जब नदियाँ बचेगी तभी वर्तमान पीढियां और आने वाली पीढियां भी बचेंगी, झारखण्ड राज्य बचेगा।

(लेखक आर. एस. पी. कॉलेज, झरिया में सहायक प्राध्यापक हैं)

 

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