पितृपक्ष: सनातनियों  को आत्मिक और पारिवारिक रूप से सशक्त बनाने की वैज्ञानिक परंपरा 

लेखक: डा  मनमोहन प्रकाश

पितृ पक्ष, पूर्वजों के सम्मान के लिए समर्पित समय अवधि है; हिंदू कैलेंडर के अनुसार, पितृ पक्ष – जिसे श्राद्ध काल भी कहा जाता है – भाद्रपद महीने में कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि से शुरू होता है। यह 16 दिनों तक चलता है और महालया अमावस्या को समाप्त होता है, जिसे सर्व पितृ अमावस्या भी कहा जाता है।

पितृपक्ष, १६ दिन की वह अवधि (पक्ष/पख) है जिसमें हिन्दू लोग अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं और उनके लिये पिण्डदान करते हैं।
सनातन संस्कृति में पितृपक्ष (श्राद्ध) एक महत्वपूर्ण धार्मिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक परंपरा है जिन्हें निम्न तथ्यों से समझा जा सकता है –

(1.) परिवार का कभी हिस्सा रहे प्रभु में विलीन सदस्यों को याद करना और उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करने का पर्व पितृपक्ष है यह समय पूर्वजों का परिवार के लिए किये गये योगदान, त्याग के लिए  कृतज्ञता व्यक्त करने का अवसर होता है।

(2) यह परंपरा वर्तमान पारिवारिक सदस्यों को अपने परिवार के इतिहास से परिचित कराती है तथा उन्हें संरक्षण करने की प्रेरणा देती है।

(3) इस परंपरा में पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए किया जाने वाला श्राद्ध कर्म एक प्रकार से श्राद्ध करने वाले व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक शांति और विश्वास देता है कि उसके पूर्वजों का आशीर्वाद उसके परिवार के साथ है।

(4) पितृपक्ष के दौरान पवित्र नदियों, पीपल वृक्ष और तुलसी के पौधे की पूजा करना प्रकृति के प्रति आभार प्रकट करने और प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने की भावना को बढ़ावा देता है।

(5) पितृपक्ष में ब्राह्मणों और अन्य को शुद्ध, सात्विक संतुलित भोजन के लिए आमंत्रित कर  प्रेम,आदर और सम्मान से  पौष्टिक आहार कराना संतुलित और सात्विक पोष्टिक आहार के महत्व को प्रतिपादित करता है

(6) यह पर्व परिवार और समाज में आपसी प्रेम और एकजुटता पर बल देता है तथा अपनी जड़ों और परंपराओं के प्रति सम्मान बनाए रखने की प्रेरणा देता है।

(7) पितृपक्ष सामान्यतः वर्षा ऋतु के बाद आता है, जब सामान्यतः कृषि कार्य भी समाप्त हो चुके होते हैं और शरद ऋतु का आगमन होता है।इस तरह से यह संधिकाल के महत्व को समझता है तथा मौसम में हो रहे परिवर्तन से सजग रहने  की सलाह देता है।

(8) भारतीय धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, पितृपक्ष के समय ब्रह्मांड में एक विशेष आध्यात्मिक ऊर्जा प्रवाहित होती है। इस ऊर्जा को पूर्वजों की आत्माओं के साथ संवाद और उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट कर के ग्रहण कर लाभ उठाया जा सकता है ।

(9) पूर्वजों की आत्मा को तृप्त और प्रसन्न कर के, क्षमा याचना करके , सम्मान व्यक्त करके उनसे वंशजों के लिए आशीर्वाद प्राप्त करने का दिन हैं। निश्चित रूप इन आशीर्वादों से जीवन में सुख, समृद्धि और शांति प्राप्त होती है।

(10) श्राद्ध कर्म से व्यक्ति को आत्मिक शांति  प्राप्त होती है तथा आंतरिक शक्ति में बढ़ोतरी होती है और जीवन में सकारात्मकता आती है।

(11) यह सनातन धर्म की संस्कार, संस्कृति,परंपरा और मर्यादा को बनाए रखने का भी एक तरीका है और जीवन में सनातनी अनुशासन को प्रोत्साहित करता है।

(12) सनातन संस्कृति में इस तरह के आयोजन सामाजिक, पारिवारिक नैतिक जिम्मेदारी को निभाने की प्रेरणा देते हैं।

(13) यह पर्व सामाज में  दान की भावना को प्रोत्साहित करता है  जिससे गरीब और जरूरतमंद लोगों की सहायता होती है।

(14) श्राद्ध में भोजन कराना एक प्रकार से अहंकार को त्यागने और आत्म-शुद्धि की प्रक्रिया  है।

(15) समय की मांग है कि  ब्राह्मणों के साथ-साथ दीन-दुखियों, गरीबों, और भूखों को भोजन कराना इस परंपरा में समाजिक उत्तर दायित्व के निर्वहन की दिशा में एक श्रेष्ठ बदलाव हो सकता है तथा  यह समाजसेवा करने का एक महत्वपूर्ण पर्व भी बन सकता है।इस दिशा में बहुत से परिवारों ने पहले से ही ध्यान देना आरंभ कर दिया है।

अतः पितृपक्ष को उत्साह और कर्त्तव्य समझ कर मनाना अपनी वैज्ञानिक सनातन संस्कार और संस्कृति के प्रति समर्पण और सम्मान प्रगट करने का तथा आस्था और समर्थन व्यक्त करने का श्रेष्ठ अवसर है अतः प्रत्येक सनातनी को अपनी श्रद्धा, क्षमता अनुसार इस पर्व को अवश्य मनाना चाहिए।
श्राद्ध विधि
इस दिन श्राद्ध करने वाले व्यक्ति देवी-देवताओं, ऋषियों और पितरों के नाम का उच्चारण करके श्राद्ध करने का संकल्प लेते हैं। इसमें जल में काले तिल मिलाकर पितरों को अर्पित किया जाता है। इस प्रक्रिया को तर्पण कहते हैं, इसे तीन बार किया जाता है. फिर चावल के बने पिंड बनाकर पितरों को अर्पित किए जाते हैं, इससे पितरों की आत्मा को तृप्ति मिलती है।
श्राद्ध कर्म के अंत में ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है और उन्हें वस्त्र, भोजन, तिल, और अन्य दान दिए जाते हैं। इसे पिंडदान से भी महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि ब्राह्मणों को पितरों का प्रतिनिधि माना जाता है।

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