बिहार से अलग होकर 2000 में झारखंड का गठन एक महत्वपूर्ण राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन था। इसका उद्देश्य था कि इस नए राज्य में लोगों की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के अनुसार विकास और समृद्धि की संभावनाएँ निर्मित की जाएं। हालांकि, झारखंड के गठन के साथ ही शिक्षा के क्षेत्र में गंभीर चुनौतियाँ सामने आईं। झारखंड के गठन के बाद, राज्य में केवल तीन सरकारी शिक्षक प्रशिक्षण कॉलेज—हजारीबाग, देवघर, और रांची—उपलब्ध थे। इन कॉलेजों के माध्यम से पूरे राज्य में एक साल में केवल 300 विद्यार्थी ही शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे थे। यह स्थिति तब और गंभीर हो गई जब 2004 में हाई स्कूल शिक्षकों की बहाली की गई। दुर्भाग्यवश, योग्य अभ्यर्थियों की कमी के कारण इस बहाली प्रक्रिया को रद्द करना पड़ा। झारखंड में शिक्षक बहाली में अभ्यर्थियों की कमी एक बड़ी समस्या बन गई थी। प्रशिक्षित और योग्य शिक्षक अभ्यर्थियों की कमी के कारण कई बार बहाली की प्रक्रियाएँ रद्द करनी पड़ीं। यह स्थिति शिक्षा के क्षेत्र में राज्य की आवश्यकताओं को पूरा करने में एक बड़ी बाधा बन गई।
झारखंड के गठन के बाद, शिक्षा के क्षेत्र में स्थिति काफी दयनीय रही। उस समय झारखंड में शिक्षा सचिव के. के. सिंह थे। राज्य की शिक्षकों की घोर कमी ने शिक्षा प्रणाली को गंभीर संकट में डाल दिया। जब राज्य का गठन हुआ, तब शिक्षक बहाली की प्रक्रिया में गंभीर समस्याएँ आईं क्योंकि योग्य अभ्यर्थियों की कमी के कारण कई बहालियां रद्द करनी पड़ीं। यह स्थिति अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण थी, क्योंकि प्रशिक्षित और योग्य शिक्षक अभ्यर्थियों की भारी कमी थी, जिससे राज्य के विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखना मुश्किल हो गया। राज्य में शिक्षकों की यह कमी केवल एक अस्थायी समस्या नहीं थी, बल्कि यह एक दीर्घकालिक संकट बन गई थी। इस गंभीर स्थिति को सुधारने के लिए तत्कालीन शिक्षा सचिव के. के. सिंह ने सक्रिय भूमिका निभाई। उन्होंने राज्य सरकार की ओर से एक महत्वपूर्ण पहल की और सरकारी महाविद्यालयों में बीएड पाठ्यक्रम शुरू करने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया। इस पहल का उद्देश्य यह था कि राज्य में शिक्षक प्रशिक्षण के अवसर बढ़ाए जाएं और प्रशिक्षित शिक्षकों की संख्या में वृद्धि हो सके। बीएड पाठ्यक्रमों की शुरुआत से यह उम्मीद की गई कि अधिक संख्या में योग्य और प्रशिक्षित शिक्षक तैयार होंगे, जो स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने में सक्षम होंगे। यह कदम तात्कालिक आवश्यकता की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए उठाया गया था, ताकि शिक्षा के क्षेत्र में सुधार हो सके और भविष्य में किसी भी प्रकार की अभ्यर्थी की कमी से बचा जा सके। इस प्रयास ने झारखंड के शिक्षा क्षेत्र में एक नई दिशा दी.
झारखंड में शिक्षा के सुधार के प्रयास के तहत, राज्य सरकार ने सरकारी विश्वविद्यालयों के 22 अंगीभूत महाविद्यालयों में बीएड पाठ्यक्रम को स्ववित्तपोषित योजना के तहत शुरू किया। बाद के वर्षों में इसी तरह एमएड कोर्स भी शुरू किया गया. यह कदम राज्य में प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी को पूरा करने के लिए उठाया गया था। स्ववित्तपोषित योजना के तहत शुरू किए गए बीएड कोर्स ने प्रशिक्षण के अवसरों को बढ़ाया और शिक्षक पेशेवरों की संख्या में वृद्धि की। हालांकि, इस योजना के कार्यान्वयन के दौरान, शिक्षक बहाली का प्रक्रिया उस समय के वेतनमान के अनुरूप किया गया। इस स्थिति ने शिक्षक बनने की प्रक्रिया को एक नया रूप दिया, लेकिन इसके साथ ही कुछ समस्याएँ भी उत्पन्न हुईं। बीएड पाठ्यक्रम के शुरू होने के बाद, सरकार ने इस दिशा में अपनी सक्रियता को कम कर दिया। इसके परिणामस्वरूप, बीएड कोर्स के संचालन और प्रबंधन का पूरा अधिकार विश्वविद्यालयों को सौंप दिया गया। यहां से स्थिति में और भी जटिलता आ गई। विश्वविद्यालयों ने बीएड पाठ्यक्रम का संचालन अपनी शर्तों पर करना शुरू कर दिया, और शिक्षक प्रशिक्षण के मानकों पर ध्यान कम हो गया। इसके अतिरिक्त, वेतनमान की समीक्षा के बिना, न्यूनतम वेतनमान तय कर दिया गया, जो उस समय के वेतनमान के मानकों को दरकिनार करता था। इन निर्णयों ने शिक्षा प्रणाली में व्यापक प्रभाव डाला। शिक्षकों के वेतन और प्रशिक्षण मानकों पर ध्यान न दिए जाने के कारण, प्रशिक्षित शिक्षकों की गुणवत्ता में कमी आई और शिक्षा की गुणवत्ता पर असर पड़ा। इस प्रकार, यद्यपि बीएड कोर्स का आरंभ एक सकारात्मक कदम था, लेकिन इसके बाद के कार्यान्वयन और प्रबंधन में अनदेखी और असंगति ने शिक्षा सुधार की दिशा में कई नई चुनौतियाँ उत्पन्न कीं।
शिवशंकर सिंह मुंडा बनाम राज्य सरकार (2010) का मामला भारतीय शिक्षा व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण घटना थी। इस केस के तहत, हाई कोर्ट के आदेश पर एनसीटीई (राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद) ने झारखण्ड राज्य के सभी अंगीभूत महाविद्यालयों के बीएड कोर्स की मान्यता रद्द कर दी थी। इस निर्णय का आधार याचिकाकर्ता की शिकायतें थीं, जो यह दर्शाती थीं कि इन महाविद्यालयों ने मानक की पूर्ण अनुपालना नहीं की थी। एनसीटीई ने मान्यता रद्द करने के बाद, महाविद्यालयों को एक अंतिम चेतावनी दी कि वे मानक के अनुसार सुधार करें, तभी उनकी मान्यता बहाल की जाएगी। सरकार के द्वारा दिए गए शपथ पत्र जिसमे मानक के अनुरूप व्यवस्था करने का संकल्प लिया गया, इन बीएड विभागों कि मान्यता पुनः बहाल हुई. प्राध्यापकों की दयनीय स्थिति के बावजूद, ये महाविद्यालय हर साल हजारों प्रशिक्षु शिक्षकों को तैयार करते रहे, जो राज्य के शिक्षा क्षेत्र में योगदान दे रहे हैं। इस प्रकार, सरकार का उद्देश्य, यानी गुणवत्तापूर्ण शिक्षक तैयार करना, तो पूरा होता रहा, लेकिन प्राध्यापकों की समस्याओं और दयनीय परिस्थितियों को सुलझाने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। यह स्थिति स्पष्ट करती है कि जब शिक्षा की गुणवत्ता को सुनिश्चित करने के प्रयास किए जाते हैं, तो प्राध्यापकों की स्थिति और उनकी समस्याओं पर भी ध्यान देने की आवश्यकता होती है।
सरकार को इस संदर्भ में सकारात्मक सोंच रखते हुए सरकारी विश्वविद्यालयों के एमएड एवं अंगीभूत महाविद्यालयों के बीएड प्राध्यापकों नियमित करने की दिशा में पहल करनी चाहिए। नियमित प्राध्यापक शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाते हैं। इससे प्राध्यापकों का मनोबल बढ़ेगा, स्थायी रोजगार मिलेगा, प्रतिबद्धता बढ़ेगी, जीवन की स्थिरता और आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित होगी। वहीँ राज्य अध्यापक शिक्षा के एक बड़े केंद्र के रूप उभरेगा जो राज्य की आवश्यकताओं एवं आकाँक्षाओं के अनुरूप भावी पीढ़ी के लिए शिक्षकों को तैयार कर सकेगा। यह यह बात ध्यान देने योग्य है एक स्अथिर एवं मजबूत ध्यापक शिक्षा व्यवस्था सभी शिक्षा का आधार होता है।
लेखक – प्रो. (डॉ) मो. तनवीर युनूस (शिक्षाविद, झारखण्ड)